न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ तब जब खेती कर पाएंगे किसान

Ajay singh

Lucknow.. 06/03/2021.. (Rns).. आज पूरे देश में किसान आंदोलन की चर्चा जोर शोर से हो रही है। दिल्ली के बॉर्डर पर इस आंदोलन के100 दिन पूरे हो गये।सरकार और तमाम विपक्षी पार्टियां इस आंदोलन मे अपना नफा और नुकसान ढूढ़ रही हैं।संसदीय चुनाव पर इसका कितना असर होगा यह भविष्य की बात है क्योंकि इसमें अभी 4वर्ष का समय है।बात की जाय उत्तर प्रदेश के किसानों की तो इनके सामने जो सबसे गंभीर समस्या है उसकी ओर शासन प्रशासन का ध्यान नही जा रहा है। जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ आवारा पशुओं, नीलगाय, और जंगली सुवरों की।नीलगाय और जंगली सुवरों की समस्या तो पहले से थी किन्तु विगत 4 वर्षों से आवारा पशुओं की समस्या अत्यंत गंभीर हो गयी है। नदी के किनारे व तराई क्षेत्रों में जहाँ इन पशुओं को पानी की सुविधा उपलब्ध होती है वहीं अपना स्थायी ठिकाना बना लेते हैं।आये दिन किसानों की फसल चौपट करते रहते हैं।कुछ किसान तो मजबूर होकर खेतों की घेराबंदी करा लेते हैं किंतु जो आर्थिक रूप से कमजोर है वो अपनी फसलों का सर्वनाश देखने को विवश हैं।2-4 नहीं ये जानवर 40-50 की झुंड में चलते हैं तो कल्पना की जा सकती है कि जिस खेत मे घुस जाय उसका क्या हाल होगा।किसानों की आधी उर्जा तो इनको भगाने में ही लग जातीहै। कहने को तो इनको रखने की व्यवस्था की गई लेकिन वो खानापूर्ति ही बन कर रह गई।किसको दोष दे गौपालकों को किसानों को या प्रशासन को ?असर ये हो रहा है कि किसानों के बीच सरकार विरोधी लहर उत्पन्न हो रही है ।उत्तर प्रदेश में अगले साल चुनाव है और आश्चर्य नहीं होगा कि विपक्षी पार्टियां इस मुद्दे को अपना हथियार बना ले।जब तक इसका स्थायी समाधान नही होगा यह समस्या दूर नही होगी।इसके लिये शासन को बड़े पैमाने पर कदम उठाना पड़ेगा।अगर समय रहते प्रशासन नही चेता तो आने वाले चुनाव में इसका असर देखा जा सकता है।नील गायों के आतंक से दलहनी फसलों की बुआई का रकबा तो घटा ही हैं,साथ ही दलहनों की महंगाई के मूल में भी इस समस्या का बड़ा योगदान हैं।गो पालन मुख्यमंत्री के प्राथमिकता में हैं और बजट में भी इसका इंतजाम होने के बाद भी प्रशाशन शिकायत होने पर खानापूर्ति कर अपना पीछा छुड़ा लेता हैं।अब जरूरत हैं कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ आवारा पशुओं के लिए उचित प्रबंध हो जिससे किसान अपनी फसलों का सही से निष्पादन कर सकें।ज्यादातर किसान अब प्रद्योगिकी आधारित खेती करते हैं जिससे बैल निष्प्रयोज्य हो गए हैं ,किसान ये तो चाहता कि गोबंस कत्ल खाने न जाये पर उनको पालन नही चाहता दूध की जरूरत पूरी होने के बाद पशुओं को छोड़ दिया जाता हैं जो खेती के लिए समस्या बनते जा रहे हैं,आवारा पशुओं से छुटकारा पाने के लिए पूरे देश को एक मजबूत योजना की जरूरत हैं जो कागज से इतर जमीन पर दिखाई दें.

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