यूपी की महिला जज को बर्खास्तगी के 14 साल बाद मिला इंसाफ
नई दिल्ली,14 मार्च (आरएनएस)। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राहत वाला नजरिया रखने से किसी जज की ईमानदारी व सत्यनिष्ठा पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। इस तरह केन्यायिक नजरिये को कदाचार नहीं कहा जा सकता।
चीफ जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की पीठ ने ये टिप्पणी उत्तर प्रदेश की एक अतिरिक्त जिला जज साधना चौधरी की बर्खास्तगी केआदेश को दरनिकार कर दिया है। पीठ ने उन्हें पुनरूबहाल करने का आदेश दिया है। इस जज को बर्खास्ती के14 वर्षों तक कानूनी लड़ाई लडने केबाद न्याय मिला है। वास्तव में साधना चौधरी पर आरोप था कि गाजियाबाद में अतिक्ति जिला जज पर रहने केदौरान भूमि अधिग्रहण केजुड़े दो मामलों में उन्होंने न्यायिक शिष्टाचार व मानक से इतर जाकर आदेश पारित किया था। उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने न्यायिक शिष्टाचार व मानक के विपरीत जाकर मुआवजे देने का निर्णय लिया था। इसके बाद उनकेखिलाफ जांच कमेटी भी बैठी थी और आरोप को सही बताया गया था। इसे यूपी गवर्नमेंट सर्विस कंडक्ट रूल्स की धारा-तीन केतहत कदाचार माना गया। 17 जनवरी 2006 को उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया था। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में भी इसे चुनौती दी थी लेकिन वहां राहत नहीं मिली थी। जिसकेबाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि इस न्यायिक अधिकारी केदो आदेशों में से एक मामले में तो हाईकोर्ट ने मुआवजे की रकम भी बढ़ा दी है। लिहाजा न्यायिक अधिकारी के खिलाफ यह मामला ताश केपत्ते की तरह ढह जाता है। शीर्ष अदालत ने कहा कि महज संदेह के आधार पर कदाचार नहीं हो जाता। कदाचार साबित करने केलिए दस्तावेजीय प्रमाण भी होना चाहिए।
न्यायपालिका के छवि धूमिल करने के प्रयास
सुप्रीम कोर्ट में अपने इस आदेश में न्यायपालिका की छवि धूमिल करने के प्रयास पर भी नाराजगी जताई है। अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि हम इस सच्चाई को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि इस देश में न्यायपालिका की छवि को धूमिल करने के लिए अनगिनत शिकायतें हर वक्त तैयार रहती हैं। कभी-कभी छनिक लोकप्रियता केलिए भी ऐसा किया जाता है। कभी-कभी बार केसदस्य(वकील) भी इनमें शामिल हो जाते हैं। निचली अदालत केन्यायिक अधिकारी सबसे आसानी से शिकार होते हैं।
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